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हृदय रोग के ज्योतिषीय कारण और निवारण

हृदय मनुष्य के शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है। संपूर्ण शरीर में रक्त संचरण का दायित्व भी हृदय का है। हृदय शुद्ध एवं स्वच्छ रक्त से स्वस्थ रहता है। हृदय कष्ट में हो तो दर्द होता है। हृदय क्षमता से अधिक कार्य कर सकता है। हृदय की कार्य करने की क्षमता कम होने पर हृदय दुर्बल कहलाता है। वात, पित्त, कफ का असंतुलन, परिश्रम, शोक, चिंता, तनाव इत्यादि हृदय रोग के कारण बनते हैं। वायु प्रकोप तथा धमनियों में तलहत जमा होने के कारण हृदय रोग उत्पन्न होता है। यदा-कदा जन्म से ही हृदय की बनावट में कमी होने के कारण भी यह रोग उत्पन्न होता है।

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हृदय रोग से बचाव के उपाय

मानव चाहे कितना भी प्रयास कर ले, चाहे अच्छे से अच्छे वातावरण में रह ले, चाहे अच्छे से अच्छा भोजन कर ले, अच्छे से अच्छा वस्त्र पहन ले, फिर भी जीवन में कभी न कभी, किसी न किसी रोग से ग्रसित हो ही जाता है। अब चाहे रोग अल्पकालिक हो या दीर्घकालिक। अल्पकालिक रोग तो कुछ दिनों के उपचार से ठीक हो जाता है परंतु दीर्धकालिक रोग मानव के जीवन को नरक बना देते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ये रोग मानव के अपने ही कर्मों का परिणाम होते हैं, अब चाहे ये कर्म इस जन्म के हों या पिछले जन्म के। हृदय रोग भी ऐसा ही दीर्घकालिक रोग है, एक बार लग गया तो जीवन भर मानव के जी का जंजाल बन जाता है। रोग निवारण की दवा भी जीवनपर्यंत लेनी पड़ जाती है। अब हृदय रोग किसी जातक को क्यांे होता है, इसके क्या कारण होते हैं - इन पर ज्योतिष शास्त्र में विस्तार से लिखा गया है कि प्रत्येक रोग किसी न किसी ग्रह से संबंधित होता है जिसका पता जातक की जन्म कुंडली, राशि चार्ट, हस्त रेखा, वास्तु शास्त्र या फिर अंक विज्ञान से किया जा सकता है। ये ग्रह चाहे अनुकूल हों या प्रतिकूल, प्रत्येक दशा में मानव को प्रभावित करते ही हैं। ग्रह यदि अनुकूल हैं तो उसके उपाय करके रोग निवारण में मदद ली जा सकती है और ग्रह यदि प्रतिकूल हों तो वह रोग संबंधित अनिष्ट फल ही देते हंै। इसलिये अनुकूल ग्रह को ज्यादा अनुकूल बना कर और प्रतिकूल ग्रह को उचित उपायों से बेहतर कर के मानव के रोग संबंधित अनिष्ट समय को काटा जा सकता है। एक बात जान लेनी चाहिये कि ग्रह हर हाल में फल देते हैं, केवल पूजा व दानादि से उसके फल को कम या अधिक किया जा सकता है।

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हृदय रोग से संबंधित ज्योतिषीय योग

- यदि षष्ठेश केतु के साथ हो तथा बृहस्पति, सूर्य, बुध व शुक्र अष्टम भाव में, चतुर्थ भाव में केतु हो तो हृदय रोग होता है। - चतुर्थ व पंचम भाव में पाप ग्रह हो या पाप प्रभाव हो। - पंचमेश तथा द्वादशेश एक साथ त्रिक भाव (6-8-12 भाव) में हों। - सप्तम या चतुर्थ भाव में मंगल बृहस्पति एवं शनि एक साथ हों। - पंचमेश तथा सप्तमेश दोनों छठे भाव में हांे तथा पंचम या सप्तम में पाप ग्रह स्थित हों। - तृतीय, चतुर्थ व पंचम में पाप ग्रह हों। - मंगल, बृहस्पति एवं शनि चतुर्थ में हों। - जन्म नक्षत्र मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी हो तो हृदय रोग बहुत पीड़ादायक होता है।

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हृदय रोग से संबंधित योग एवं कुंडलियां

‘‘साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्। मदन्यते न जानन्ति नाहं तेन्यो मनागपि।।’’ ‘‘सज्जन मेरा हृदय हैं, मैं उनका हृदय हूं। वह मेरे सिवाय किसी को नहीं जानते और मैं उनके सिवाय किसी को नहीं जानता।। ‘‘श्रीमद्भागवत् - 9ः4/68 हृदय रोग, आधुनिक जीवन शैली का सर्वसामान्य सार्वलौकिक कष्ट है। आधुनिक समय में मानसिक तनाव, व्यावसायिक स्पर्धा, अखाद्य-अपाच्य भोजन, व्यायाम की कमी, शरीर की कम क्रियाशीलता, धूम्रपान आदि इस रोग की ओर उन्मुख करते हैं। ज्योतिषीय दृष्टिकोण: चतुर्थ भाव जातक के वक्ष स्थल का सूचक है।

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हृदय रोग: कारण और निवारण

पूरे विश्व में हृदय के दौरे से मरने वाले लोगों की संख्या अन्य रोगों से मरने वालों की संख्या से अधिक है। अकेले अमेरिका जैसे विकसित देश में ही पांच लाख लोग हृदय रोग से प्रतिवर्ष मर जाते हैं। ये आंकड़े तो तब हैं जब 1963 से अब तक हृदय रोग से होने वाली मौतें 50 प्रतिशत तक कम हो गई हैं...

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हर्निया: आंत का उतरना

हर्निया शब्द इंगलिश भाषा का है। हिंदी भाषा में इसे आंत का उतरना या शोथ कहते हैं। हर्निया शब्द का अर्थ उदर की दीवार के कोटर से आंत का बाहर निकलना है। आंत के अतिरिक्त शरीर के अन्य अंगों में भी ऐसा घटित हो सकता है क्योंकि उदर गह्नर (बिल) या कोटर के अंदर स्थित अंग का कुछ अंश विशेष अवस्था में बाहर निकल सकता है।

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हस्तरेखा ज्ञान : इतिहास एवं प्रामाणिकता

व्यक्ति की आयु, कर्म, धन, विद्या और मृत्यु का निर्धारण गर्भ में ही हो जाता है। कर्मवादियों एवं ज्योतिषियों का विवाद युगों-युगों से चला आ रहा है। कर्मवादी अपने पक्ष की प्रबल पुष्टि हेतु प्राय: गीता के इस श्लोक की दुहाई देते है। अर्थात व्यक्ति को अपना कर्म कर्तव्य समझ कर निरंतर करते रहना चाहिए

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हस्ताक्षर एवं ग्रह

‘‘हस्ताक्षर’’ दो शब्दों हस्त+अक्षर से निर्मित शब्द है जिसका अर्थ है हाथों से लिखित अक्षर। वैसे तो वर्णमाला के सभी अक्षरों को लिखने के लिए हाथों का प्रयोग किया जाता है परंतु ‘हस्ताक्षर’ शब्द का प्रयोग प्रमुखतः अपने नाम को संक्षिप्त एवं कलात्मक रूप से व्यक्त करने के लिए ही होता है।